Sunday, February 24, 2013
जे तुला बोलू न शकलो
जे तुला बोलू न शकलो
कागदावर मांडले
नेमके ते पान माझ्या
डायरीचे फाटले
गाळली नाही कधीही
मूक माझी आसवे
व्यक्त झालो मी कधी तर
फक्त झालो मजसवे
चार भिंतींनीच होते
दु:ख माझे जाणले
नेमके ते पान माझ्या
डायरीचे फाटले
आठवांनो का अताशा
साथ माझी सोडली?
हस्तरेषा चांगली जी
ती कुणी का खोडली?
प्राक्तनाने आज फासे
सर्व उलटे टाकले
नेमके ते पान माझ्या
डायरीचे फाटले
वर्णितो शब्दातुनी मी
प्रेम माझे अन् तुझे
का तुला काव्यात वाटे
नांदते कोणी दुजे?
अर्थ माझ्या शायरीचे
वेगळे का काढले?
नेमके ते पान माझ्या
डायरीचे फाटले
जीवनाच्या मैफिलीचा
ओसरावा नूर का?
मीच गातो ऐकतोही
तू अताशा दूर का?
ना शमा साकी न आता
एकटेपण दाटले
नेमके ते पान माझ्या
डायरीचे फाटले
चित्र रेखाटू कसे मी?
भावना घोंगावती
इंद्रधनुचे रंग घेउन
कुंचले सरसावती
पण तरी कॅन्व्हास कोरा
रंग सारे आटले
नेमके ते पान माझ्या
डायरीचे फाटले
निशिकांत देशपांडे मो.क्र. ९८९०७ ९९०२३
E Mail-- nishides1944@yahoo.com
Friday, February 22, 2013
होरी
होरी है आज सखी
खिल उठे है रंग
राधा की सुध बिसरी
गिरिधर के संग
मन भावन लगता था
शाम रूप साधा
कसरिया तनमन पर
भिग गयी राधा
यमुना आंगन आयी
धो न सकी रंग
राधा की सुध बिसरी
गिरिधर के संग
भक्तिरस मे मीरा ने
खेली थी होली
आपनाने गिरिधर को
फैली थी झोली
जीत प्यार की, पी कर
जहर के तरंग
राधा की सुध बिसरी
गिरिधर के संग
अर्जुन का अज्ञान मे
एक पल था बीता
ज्ञान रंग मे डूबे
सुन कर गीता
आँधियारा गुनगुनाये
तेज के अभंग
राधा की सुध बिसरी
गिरिधर के संग
निशिकांत देशपांडे मो.क्र. ९८९०७ ९९०२३
E Mail-- nishides1944@yahoo.com
Wednesday, February 20, 2013
लगने लगा
मान, सन्मान, शान, शौक़त
सब इतिहास लगने लगा
जिंदगीमे खाली पन का
अब अहसास लगने लगा
हाथकडियाँ डाली अपनोंने
गुत्थी प्यार की छूटे ना
कोशिश मेरी, यही अश्क के
बांध कहीं अब टूटे ना
तलाश थी जब एक बंदे की
हर कोई खास लगने लगा
जिंदगी मे खाली पन का
अब अहसास लगने लगा
खुशबू ही खो गयी फूल से
क्या मतलब है खिलने का?
नियती ने तय किया विरह, तो
क्या मतलब है मिलने का?
सूना सूना सावन अबके
एक वनवास लगने लगा
जिंदगी मे खाली पन का
अब अहसास लगने लगा
प्रभू चरण मे यही प्रार्थना
अपनों को मत तोडो तुम
हो शामिल मेरे अपनों मे
खुद को भी संग जोडो तुम
रिश्तों का रेशम सा धागा
अब एक फास लगने लगा
जिंदगी मे खाली पन का
अब अहसास लगने लगा
पैलतीर जब दिखे सामने
पीछे मुडकर क्यों देखे?
काम किया ना कभी बुरा तो
नीचे मुडकर क्यों देखे?
माला जप कर, जीवन रब का
अब एक साँस लगने लगा
जिंदगीमे खाली पन का
अब अहसास लगने लगा
निशिकांत देशपांडे मो.क्र. ९८९०७ ९९०२३
E Mail-- nishides1944@yahoo.com
Saturday, February 16, 2013
लगने लगी
धुंदला अतीत बीत गया
कल की आस लगने लगी
चमन फूल वही फिज़ा
अब के खास लगने लगी
है अंधेरा हम दम मगर
उजालों की प्यास लगने लगी
होते हुए दुरियाँ बहूत
कोई पास लगने लगी
मुस्कान की तेरे ताज़गी
रेत मे घास लगने लगी
तनहा तनहा यह जिंदगी
चलती लाश लगने लगी
आप आये मंज़िलों की
खत्म तलाश लगने लगी
ठंडी सर्द हवा मे आहट
गर्म साँस लगने लगी
याद आते ही घुटन भी
खुला अहसास लगने लगी
निशिकांत देशपांडे मो.क्र. ९८९०७ ९९०२३
E Mail---nishides1944@yahoo.com
Thursday, February 14, 2013
शिकवे गिले करना नही
आसुओंसे है गुजारिश
आँखोंसे अब बहना नही
इत्तफाकन मिल गये तो
शिकवे गिले कहना नही
जुस्तजू ना खत्म होगी
जिंदगी चलती रही
मोडपर हर जिंदगीके
मायुसी मिलती रही
ग़म का सेहरा सर पे अपने
और कोई गहना नही
इत्तफाकन मिल गये तो
शिकवे गिले कहना नही
जिंदगी की एक ख़्वाइश
वो हमेशा खुश रहे
दर्द से रिश्ता हमारा
सहते रहे बिन उफ कहे
बहारों उनसे मिलो तुम
मेरी गली रहना नही
इत्तफाकन मिल गये तो
शिकवे गिले कहना नही
गुजरती है शाम अपनी
मय, नशा और आह पर
लडखडाते कदम मेरे
बेहोष तेरी राह पर
दिल खुला, अछियोंका
बुरखा कभी पहना नही
इत्तफाकन मिल गये तो
शिकवे गिले कहना नही
तीसरा मै कह चुका हूं
तलाक आइना देख कर
खुद से अज़ादी कहाँ?
जिंदा हुं यादें रोक कर
आरजू है अल्विदा लूं
बस और कुछ सहना नही
इत्तफाकन मिल गये तो
शिकवे गिले कहना नही
निशिकांत देशपांडे मो.क्र. ९८९०७ ९९०२३
E Mail-- nishides1944@yahoo.com
Wednesday, February 13, 2013
मैने देखा जहर नही
याद तुम्हारी आयी ना हो
ऐसा कोई प्रहर नही
तनहाई से भी जहरीला
मैने देखा जहर नही
संग आपके मखमल जैसा
जीवन मानो सपना था
चाँद सितारों की बस्ती थी
बसंत भी तो अपना था
तुम जाने के बाद गाँव मे
मुडकर आयी सहर नही
तनहाई से भी जहरीला
मैने देखा जहर नही
भूल गया हूं अतीत सारा
खुदसे मै रूबरू नही
तेरेबिन दुखियारे मन को
चैन नही जुस्तजू नही
चप्पा चप्पा तुम्हे न ढूंडा
ऐसा कोई शहर नही
तनहाई से भी जहरीला
मैने देखा जहर नही
टूट गये रिश्ते शबनम से
सबा न हो महसूस कंही
दिये बुझे है इस बस्ती मे
तूफाँ है, फानूस नही
मंज़िल कैसे खोजेंगे हम?
कुछभी आता नजर नही
तनहाई से भी जहरीला
मैने देखा जहर नही
शाम पुरानी कहाँ गयी वो?
सूनी अब है बज़्म यहाँ
तबियत महफिल की है बदली
कौन सुनेगा नज़्म यहाँ
कागज़ पे मै बयाँ करू क्या?
लिखता मै अब बहर नही
तनहाई से भी जहरीला
मैने देखा जहर नही
खुश्क इलाका बेरहमोंका
असवन की है सिर्फ नमी
बोझ बनी है एक जिंदगी
साँसों की भी यहाँ कमी
डूब मरू कैसे या रब ?
आसपास मे नहर नही
तनहाई से भी जहरीला
मैने देखा जहर नही
रचना मे आये उर्दू शब्दों के अर्थः-- १) सहर-- Morning. २) रूबरू-- face to face, in front of ३)जुस्तजू--search ४) सबा-- morning easterly breeze ५)फानूस--glass shade for candle ६)बज़्म--maifil ७) नज़्म--A form of poetry ८) बहर-- meter of poetry ९) बेरहम--cruel १०) या रब Oh God !
निशिकांत देशपांडे मो.क्र. ९८९०७ ९९०२३
E Mail-- nishides1944@yahoo.com
Monday, February 11, 2013
पता है मुझे
जीवन किनारे
छायी बहारे
किसके सहारे?
पता है मुझे
खुशी की कतारें
आँगन हमारे
जलते है सारे
पता है मुझे
गम के गुब्बारे,
गये पल करारे
बदली लकिरें
पता है मुझे
कैसा जहां रे
पापोंभरा रे
सिर क्यों झुका रे?
पता है मुझे
अश्कों के कतरे
आँखो मे उतरे
क्यों टले खतरे?
पता है मुझे
अहं के फव्वारे
स्वार्थों से हारे
दिल रब पुकारे
पता है मुझे
प्रभू संग दरारे
किसने भरी रे
शरण मे तिहारे
पता है मुझे
निशिकांत देशपांडे मो.क्र. ९८९०७ ९९०२३
E Mail-- nishides1944@yahoo.com
बहार हो तुम
(व्हॅलंटाइन डे के उपलक्ष्य मे अनाम प्रियतमा के लिये लिखी रचना)
ना उजडे वो बहार हो तुम
मुरझाये वो फूल नही
दिया है रब ने सब कुछ सुंदर
की है कोई भूल नही
शबनम की बारिश हो तुम
तेज धूप की किरन नही
जियो जिंदगी अपनी मर्जी से
जाओ किसको शरण नही
मंद हवा का झोका हो तुम
तूफानों की लहर नही
दिल मे तुम रहने के कारन
तनहाई का कहर नही
नदियों जैसा बहा करो तुम
रुकनेका लेना नाम नही
पूनम की चांदनी मे रहो
आंधियारी तेरी शाम नही
हरियाली पर चला करो तुम
पथरेली राह पर नही
भरोसा करो खुशहाली पर
दर्दभरी आह पर नही
अश्कोंको निलाम करो तुम
खरिददार गर नही मिला
मै लेलुंगा मुझको कोई
असवन से है गिला नही
लाखो नजरें देख रही है
आना मेरे गली नही
बेशक आओ यादों मे तुम
आंस मिलन की जली नही
निशिकांत देशपांडे मो.क्र. ९८९०७ ९९०२३
E Mail-- nisides1944@yahoo.com
Sunday, February 10, 2013
किती हा पसारा !
तुझ्या आठवांचा किती हा पसारा !
पसारा जरी, तोच माझा उबारा
नको हाक देऊस इतक्या उशीरा
मनातील तुटल्यात केंव्हाच तारा
त्सुनामीत बेजार मी भावनांच्या
मनी आस नुरली मिळावा किनारा
पुन्हा प्रेम करणे मला शक्य नाही
कशाला विषाची परिक्षा दुबारा ?
किती चेहरे मख्ख शेजारच्यांचे !
कुणाचाच नव्हता मिळाला सहारा
असा लिप्त मी आज दु:खात आहे !
जुना दाह वाटे सुखाचा नजारा
मनुष्यात फोफावला स्वार्थ इतका
कुणीही कुणाचाच नसतो दुलारा
भरायास खळगी किती राबलो मी
तुझा जीवना हाच रे गोषवारा
लिहावेस "निशिकांत" तू भाग्य अपुले
स्वतःला समजतोस तू का बिचारा ?
निशिकांत देशपांडे मो.क्र. ९८९०७ ९९०२३
E Mail-- nishides1944@yahoo.com
Saturday, February 9, 2013
Feel you every where
माझी अमेरिकेत जन्मलेली नात आम्हाला भेटायला आली तेंव्हा ७/८ महिन्याची होती. दोन महिने तिचा सहवास लाभला आणि नंतर ती परत गेली. तो काळ म्हणजे माझ्या आयुष्यातील सुवर्ण काळ होता. नंतर बरेच दिवस तिचा घरात हसल्याचा, असण्याचा भास व्हायचा. त्या काळात रचलेली माझी पहिली इंग्रजी भाषेतील कविता. परकीय भाषेतील कविता कशी असेल याचा अंदाजच बंधलेला बरा ! फक्त त्या वेळच्या माझ्या भावना आपणापर्यंत पोंचवायसाठी ती कविता मी पोस्ट करीत आहे.
You are there and also here
I see and feel you everywhere
Winds are blowing and gushing the springs
Birds make sounds and fly with majestic wings
When nature spreads beauty for all to stare
I see and feel you everywhere
early morning rays and fragarance cool
Clear blue sky He left for us to rule
seeing His generosity, I murmer a prayer
I see and feel you everywhere
When colours go wild durig the fall
Life becomes meaningful to live for all
You become focus of imagination to stare
I see and feel you everywhere
I have been showered best to the hilt
silky relations are abundantly built
Your memory adds to happiness one more layer
I see and feel you everywhere
निशिकांत देशपांडे मो.क्र. ९८९०७ ९९०२३
E Mail-- nishides1944@yahoo.com
Friday, February 8, 2013
अंधाराचा बांध बांधतो
तुला मिळावे हास्य म्हणोनी
दु:खाशी मी नाळ जोडतो
प्रकाश बिखरू नये म्हणोनी
अंधाराचा बांध बांधतो
खेळामध्ये जिंकताच तू
तुझा चेहरा उजळत असतो
लोभसवाण्या रुपावरी मी
भान विसरुनी बहकत असतो
चिन्ह तुझ्या हारण्याचे दिसता
अर्ध्यातच मी डाव मोडतो
प्रकाश बिखरू नये म्हणोनी
अंधाराचा बांध बांधतो
उगाच का तू खडा टाकला?
डोहामध्ये तरंग उठले
तरंग कसले? आठवणींचे
झंझावाती वादळ सुटले
दिवाळखोरी झोपेची पण
स्वप्नांना मी साद घालतो
प्रकाश बिखरू नये म्हणोनी
अंधाराचा बांध बांधतो
धन्यवाद ! तू दु:ख दिले मज
दुसरी दु:खे पळून गेली
एक दु:ख अन् एक वेदना
भोगायाची सवय जाहली
दोष तुला ना देणे जमले
प्राक्तनाकडे दाद मागतो
प्रकाश बिखरू नये म्हणोनी
अंधाराचा बांध बांधतो
तू गेल्यावर आयुष्याचे
उदासवाणे चित्र पाहिले
तुझी वजावट होता हाती
शिल्लक मोठे शुन्य राहिले
परीघ त्या शुन्याचा होउन
पाश गळ्याला खूप काचतो
प्रकाश बिखरू नये म्हणोनी
अंधाराचा बांध बांधतो
गडगडणारे की बरसाती
मेघ कसे हे माहित नसुनी
भरून येणे नभात त्यांचे
मनास जाते प्रसन्न करुनी
आठवणीच्या नभास बघुनी
मोर बिचारा नाचनाचतो
प्रकाश बिखरू नये म्हणोनी
अंधाराचा बांध बांधतो
निशिकांत देशपांडे मो.क्र. ९८९०७ ९९०२३
E Mail-- nishides1944@yahoo.com
Monday, February 4, 2013
साई भजन
रात अंधेरी आयी तो क्या?
नाम उसीका जपते रहियो
साई सूरज, वही चंद्रमा
स्मरण उसीका करते रहियो
मोह विषय का घना कोहरा
बना है जीवन मेरा साई
राह कौनसी चुन ली मैने?
जीवन है दुखियारा साई
साई तारणहार सभी का
भक्तिभावसे झुकते रहियो
साई सूरज, वही चंद्रमा
स्मरण उसीका करते रहियो
भाग भाग कर सुख के पीछे
व्यर्थ बिताया जीवन मैने
आखिर तेरेही चरणों मे
पाया तीरथ पावन मैने
जान गया हूं झूठ संपदा
मृगजल सारा, बचते रहियो
साई सूरज, वही चंद्रमा
स्मरण उसीका करते रहियो
आज जहाँ मे क्या है मेरा?
सांस तुम्हारी, आंस तुम्हारी
भूल गया मै जग को साई
चाहत दिल मे जगी तिहारी
यही कामना, सिरपर मेरे
हाथ तिहारा रखते रहियो
साई सूरज, वही चंद्रमा
स्मरण उसीका करते रहियो
निशिकांत देशपांडे मो.क्र. ९८९०७ ९९०२३
E Mail-- nishides1944@yahoo.com
Friday, February 1, 2013
आज ती मैफिल सुनी
आरसा सांगून गेला
जाहले आता जुनी
रंगली होती कधी जी
आज ती मैफिल सुनी
लेक होते, माय झाले
आज आजी मी घरी
सर्व मोसम पहिले म्या
ग्रिष्म अन् श्रावणसरी
आठवांनी गतक्षणांच्या
कंठ येतो दाटुनी
रंगली होती कधी जी
आज ती मैफिल सुनी
बोलते माझ्यासवे मी
हेच संभाषण अता
जीवनाचे नाट्य बनले
एकपात्री का कथा?
संपण्या आधीच नाटक
सर्व गेले सोडुनी
रंगली होती कधी जी
आज ती मैफिल सुनी
तेवले नंदादिपासम
वादळांशी झगडले
संपली उपयोगिता अन्
कोपर्याला पहुडले
काजवेही दूर गेले
हारली का दामिनी?
रंगली होती कधी जी
आज ती मैफिल सुनी
कालचक्राचाच महिमा
दोष कोणा का उगा?
थांबलेला काळ जेथे
एक मज दावा सुभा
प्राक्तनाने वाढलेले
भोग घ्यावे भोगुनी
रंगली होती कधी जी
आज ती मैफिल सुनी
झिंग येते भोगताना
वेदना बावनकशी
कुटुंबासाठीच झिजणे
आगळी मिळते खुशी
मी पुन्हा, स्त्री जन्म घेइन
ईश्वराला मागुनी
रंगली होती कधी जी
आज ती मैफिल सुनी
निशिकांत देशपांडे मो.क्र. ९८९०७ ९९०२३
E Mail-- nishides1944@yahoo.com
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