Saturday, February 16, 2013

लगने लगी


धुंदला अतीत बीत गया
कल की आस लगने लगी

चमन फूल वही फिज़ा
अब के खास लगने लगी

है अंधेरा हम दम मगर
उजालों की प्यास लगने लगी

होते हुए दुरियाँ बहूत
कोई पास लगने लगी

मुस्कान की तेरे ताज़गी
रेत मे घास लगने लगी

तनहा तनहा यह जिंदगी
चलती लाश लगने लगी

आप आये मंज़िलों की
खत्म तलाश लगने लगी

ठंडी सर्द हवा मे आहट
गर्म साँस लगने लगी

याद आते ही घुटन भी
खुला अहसास लगने लगी


निशिकांत देशपांडे मो.क्र. ९८९०७ ९९०२३
E Mail---nishides1944@yahoo.com

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