Monday, March 11, 2013

मुझसे साया बिछड गया


सूरज ढलने से कुछ पहले
लंबा था मेरा साया
रात हुई और हुआ अंधेरा
साया मुझसे  बिछड गया

कल तक नामुमकिन लगता था
मौसम आया तनहाई का
पागल ढूंडे विरानी मे
एक सूर शहनाई का

कोयल भी गाती है क्यूं
गीत विरह के चारों ओर ?
खण्डहर बना जीवन मेरा
कहाँ गया अपनोंका शोर ?

खुशियों के लम्होंको शायद
याद नही मेरी बस्ती
सागर तट पर बैठा है कब से
प्यासा एक अगस्ती

गुमशुदा अपने किनारे
खोज़ रही है नदिया
बेमतलब बहना है उनको
कितनी दिन कितनी सदियां ?

फसा है पंछी रश्तों मे जो
रब की ओर उडाना है
चलो उठो कर लो तैय्यारी
शव को स्वयं उठाना है


निशिकांत देशपांडे मो.क्र. ९८९०७ ९९०२३
E Mail-- nishides1944@yahoo.com







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