सूरज ढलने से कुछ पहले
लंबा था मेरा साया
रात हुई और हुआ अंधेरा
साया मुझसे बिछड गया
कल तक नामुमकिन लगता था
मौसम आया तनहाई का
पागल ढूंडे विरानी मे
एक सूर शहनाई का
कोयल भी गाती है क्यूं
गीत विरह के चारों ओर ?
खण्डहर बना जीवन मेरा
कहाँ गया अपनोंका शोर ?
खुशियों के लम्होंको शायद
याद नही मेरी बस्ती
सागर तट पर बैठा है कब से
प्यासा एक अगस्ती
गुमशुदा अपने किनारे
खोज़ रही है नदिया
बेमतलब बहना है उनको
कितनी दिन कितनी सदियां ?
फसा है पंछी रश्तों मे जो
रब की ओर उडाना है
चलो उठो कर लो तैय्यारी
शव को स्वयं उठाना है
निशिकांत देशपांडे मो.क्र. ९८९०७ ९९०२३
E Mail-- nishides1944@yahoo.com
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