Saturday, August 31, 2013

रुपिया गीरा रे !

इस रचनकी पहली दो पंक्तियाँ मेरे एक फेसबुक फ्रेंडके वाल पर मिली जिससे प्रेरित होकर यह रचना बनी. इसको गुनगुनानेके लिए हिंदी फिल्म गाना "झुमका गीरा रे बरेली के बाजार मे" की धुन खयाल मे रखे.

रुपिया गीरा रे मंदीके इस बाजार मे
रुपिया गीरा रे मंदीके इस बाजार मे
रुपिया गीरा रुपिया, गीरा रुपिया  गीरा हाय हाय हाय
रुपिया गीरा रे मंदीके इस बाजार मे

दिवालिया खाता है लेकिन अर्थ शास्त्र यह कैसा?
अन्न सुरक्षा कायदा किया जेबमे नही पैसा
दुनिया जाने निर्णय होते है किसके आधिकार मे!
रुपिया गीरा रे मंदीके इस बाजार मे

घूसखोरोंकी टोलीके है मनमोहन अलिबाबा
स्वित्झरलंड है इन लोगोंका मक्का कभी है काबा
अहम फाइलें गायब है की जाती इस सरकार मे
रुपिया गीरा रे मंदीके इस बाजार मे

गद्दीपर बैठे जो भी है प्यादे सब बेचारे
इंतजार होता है कब मिल जाये उन्हे इशारे
हांजीवालोंकी चलती है दिल्ली के दरबार मे
रुपिया गीरा रे मंदीके इस बाजार मे

मनमोहनसींग, चिदंबरम की सोच है कैसी प्यारे
अमीर और गरिबोंके बींच मे बढी हुई है दरारे
ये दोनो भी फेल हुये है अपनेही किरदार मे
रुपिया गीरा रे मंदीके इस बाजार मे

आम आदमी गरीब रहना मकसद उनका कैसा?
जब भी चाहो चुनाव जीतो जरा फेंक कर पैसा
पिढी दरपिढी सत्ता क्यों है गिने चुने परिवार मे?
रुपिया गीरा रे मंदीके इस बाजार मे


निशिकांत देशपांडे. मो.क्र.९८९०७ ९९०२३
E Mail--- nishides1944@yahoo.com

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