Saturday, April 20, 2013

सात समंदर

( जब बेटा और बेटी दोनो विदेश चले गये तो हमारी- स्वयं और मेरी पत्नी- जिंदगीके एक मायून कतरेसे सौगात रही. उस समय मन मे जो विरह भावनाओंका तूफान उमड पडा, उसको शब्दांकित करनेका प्रयास किया था )

साथ घुटन और तनहाई का
अपने ही घरके अंदर
अपनोंने जब पार किये
लंबे चौडे सात समंदर

फूल अकेला ना मन भाये
साथ खिले सारा हि चमन
आप्त जनों के इर्दगिर्द मे
खिले खिले हो सब के मन
खुद से हि डरता दिखता है
तनहाई मे शूर सिकंदर
अपनोंने जब पार किये
लंबे चौडे सात समंदर

दूर गगन मे उड गये पंछी
आँगन लगता है अब सूना
बादल काले छाकर बतलाए
वीरानी का एक नमूना
बिना तारका आसमान मे
शोलाकुल लगता है चंदर
अपनोंने जब पार किये
लंबे चौडे सात समंदर

हिमालय भी रो उठता है
छोडे जब हिम उसका साथ
आँसू उसके कैसे पोंछे?
कहाँ मिलेंगे काबिल हाथ?
लब काँपे आँसू भी छलके
समझा था खुद को कलंदर
अपनोंने जब पार किये
लंबे चौडे सात समंदर

रिश्तों के धागों से बुना यह
वस्त्र बडा है मनभावन
जब भी ओढो तन पर अपने
मानो जैसे छाया सावन
अंधियारों के दौर मे मिला
तनहाई का साथ निरंतर
अपनोंने जब पार किये
लंबे चौडे सात समंदर

निशिकांत देशपांडे मो. क्र. ९८९०७ ९९०२३
E Mail-- nishides1944@yahoo.com

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