Tuesday, January 22, 2013
ग़म-ए-बोझ
खयालों मे हर पल मेरे आसपास
सिमटी हुई तेरी छाया खडी है
न जाने फिर भी क्यों ज़िदगी मे
ग़म-ए-बोझ ढोने की आदत पडी है
झरोके से देखूं बाहर की दुनिया
चारों तरफ है खुशियों के मेले
क्या लेके आये किस्मत जहाँ मे
हम ही अंधरे मे पाले अकेले
पता ना चला कब गुजरी दिवाली
देखी न क्या होती फुलझडी है
न जाने फिर भी क्यों ज़िदगी मे
ग़म-ए-बोझ ढोने की आदत पडी है
बहारें चमन से थे फूल चुनने
न जाने काटें आये कहाँ से
बहारों से रिश्ते गये टूटते और
डरने लगा हूं मै अब इस जहाँ से
दामन था फैला खुशियों से भरने
विधाता ने क्यों दी ग़म की लड़ी है
न जाने फिर भी क्यों ज़िदगी मे
ग़म-ए-बोझ ढोने की आदत पडी है
इबादत कर के हर वक्त तेरी
खुशियों के हकदार है सब तेरे
नज़रे- इनायत का है इंतजार
कबसे खडा हूं हे रब मेरे
आशायें सीमित इन्साँ हूं छोटा
परछाई काली क्यूं इतनी बडी है?
न जाने फिर भी क्यों ज़िदगी मे
ग़म-ए-बोझ ढोने की आदत पडी है
ग़मे दर्द की आदत यूं पडी है
ज़नाज़े मे खुशियों के जा ना सके
जीवन से लंबी बडी रात है
लगता है दिन अब आ ना सके
बताते है काटे समय रात का
दिन ना बताये ये कैसी घडी है
न जाने फिर भी क्यों ज़िदगी मे
ग़म-ए-बोझ ढोने की आदत पडी है
निशिकांत देशपांडे मो.क्र. ९८९०७ ९९०२३
E Mail-- nishides1944@yahoo.com
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